महात्मा गांधी महान इसलिए नहीं थे क्योंकि वह महान बनना चाहते थे, बल्कि इसलिए महान थे क्योंकि जीवन को देखने का उनका नजरिया “मेरा क्या होगा?” से बहुत आगे था। अगर आप अपने दिमाग से सिर्फ इस गणना को निकाल दें कि “मेरा क्या होगा” और अपनी पूरी क्षमता से काम करें, तो एक तरीके से आप महान हो जाएंगे। एक बार आप ‘मेरा क्या होगा’ की चिंता को हटा दें, तो स्वाभाविक रूप से आप सोचेंगे “मैं अपने आस-पास के समस्त जीवन के लिए क्या कर सकता हूं?” एक बार जब आप ऐसा सोचने लगेंगे तो स्वाभाविक रूप से आप अपनी क्षमताओं को बढ़ाएंगे क्योंकि करने के लिए काफी कुछ है।
सिर्फ प्रतिबद्धता से इस दुनिया में अद्भुत चीज़ें की जा सकती हैं। महात्मा गांधी इस बात का एक सच्चा उदाहरण हैं। अगर आप इन्हें ध्यान से देखेंगे तो आप पाएंगे, कि इनमें कोई विशेष प्रतिभा नहीं थी। वे असाधारण प्रतिभा के धनी नहीं थे। वे कोई बहुत अच्छे वकील भी नहीं थे। वे दक्षिण अफ्रीका गए। वहां भी वे बहुत ज्यादा कामयाब नहीं थे। लेकिन, अचानक वे किसी चीज़ के प्रति प्रतिबद्ध हो गए। वे इतने ज्यादा प्रतिबद्ध हो गए कि वे एक महामानव बन गए। जीवन की सिर्फ एक घटना से उनकी सारी पहचान बदल गई। मोहनदास गांधी से महात्मा गांधी तक के उनके सफर में उनकी अपने उद्देश्य के लिए प्रतिबद्धता सबसे महत्वपूर्ण थी।
वे साउथ अफ्रीका आजीविका के लिए गए थे। एक दिन उन्होंने एक फर्स्ट क्लास ट्रेन टिकट खरीदी और ट्रेन से कुछ दूर तक का सफ़र तय किया। लेकिन, उन्हें भूरी चमड़ी वाला होने के कारण डिब्बे से धक्का देकर निकाल दिया गया। वे सोचने लगे, "मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? मैंने फर्स्ट क्लास टिकट खरीदी थी। मुझे ट्रेन से बाहर क्यों फेंक दिया गया?" इसी पल उन्होंने लोगों की परेशानियों से खुद को एकाकार कर लिया। उससे पहले तक, रोजी-रोटी, कानून और पैसा कमाना उनके लिए महत्वपूर्ण थे। लेकिन, अब उन्होंने खुद को एक ज्यादा बड़ी समस्या से जोड़ लिया। उन्होंने अपनी पुरानी पहचान छोड़कर एक बड़ी पहचान अपना ली।
गांधी ने लाखों लोगों को बिना किसी बड़े प्रयत्न के प्रेरित कर दिया। तब भारत में बहुत से नेता थे, जो अपनी साख रखते थे। वे सभी ज्यादा प्रतिभावान, ज्यादा अच्छे वक्ता और ज्यादा पढ़े-लिखे थे। फिर भी महात्मा गांधी, उन सबसे आगे निकल गए, बस अपनी प्रतिबद्धता की वजह से।
तो प्रतिबद्धता ऐसी चीज़ है जो हमें खुद ही अपने भीतर लानी होगी। चाहे जो कुछ भी हो, जीवन या मृत्यु, आपकी प्रतिबद्धता नहीं बदलनी चाहिए। अगर आप सचमुच प्रतिबद्ध हैं, तो आप जो भी करेंगे उसमें अपना सम्पूर्ण योगदान देंगे। किसी प्रतिबद्ध व्यक्ति के लिए हार जैसी कोई चीज़ नहीं होती। अगर वो दिन में 100 बार भी गिर जाए, तो भी फर्क नहीं पड़ता, फिर खडा होकर चलने लगेगा।
प्रतिबद्धता का मतलब आक्रामकता नहीं है, इसे ठीक से समझा जाना चाहिए। इसी सन्दर्भ में महात्मा गांधी का उदाहरण बिलकुल सटीक है। वे भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध थे, लेकिन साथ ही वे अंग्रजों के खिलाफ हिंसा के पक्ष में नहीं थे। यही सबसे महान पहलू है। इससे उनकी परिपक्वता का पता चलता है।
सद्गुरु, ईशा फाउंडेशन
एक योगी और दिव्यदर्शी सद्गुरु एक आधुनिक गुरु हैं। विश्व शांति और खुशहाली की दिशा में निरंतर काम कर रहे सद्गुरु के रूपांतरणकारी कार्यक्रमों से दुनिया के करोड़ों लोगों को एक नई दिशा मिली है। 2017 में भारत सरकार ने सद्गुरु को उनके अनूठे और विशिष्ट कार्यों के लिए पद्मविभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया है।
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