Wednesday, October 2, 2019

गांधीजी ने नेहरू को आखिरी पत्र में कहा था- उपवास छोड़ो और हिंद के जवाहर बने रहो

डीबी रिसर्च. देश आज महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। देश का इतिहास बदल देने वाले गांधीजी के पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ कुछ मौकों पर वैचारिक मतभेद हुए, लेकिन कुछ प्रसंग ऐसे हैं जो बताते हैं कि तीनों का बापू के प्रति सर्वोच्च सम्मान का भाव रहा। पंडित नेहरू को गांधीजी समय-समय पर आगाह करते रहे, लेकिन उनके स्वास्थ्य के प्रति चिंतित भी रहे। अपने आखिरी पत्र में गांधीजी ने उन्हें यह कहकर आशीर्वाद दिया कि हिंद के जवाहर बने रहो। सरदार पटेल भी गांधीजी का सबसे ज्यादा सम्मान करने वालों में शामिल थे। नेताजी बोस जब कांग्रेस अध्यक्ष बने, तब भी उन्होंने अंतिम फैसलों के लिए गांधीजी को ही अधिकृत किया। यहां तक कि अविभाजित भारत के आखिरी वाइसरॉय लॉर्ड माउण्टबेटन भी गांधीजी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित थे कि वे मानते थे कि इतिहास महात्मा को वही जगह देगा, जो जगह प्रभु ईसा या भगवान बुद्ध को मिली।


गांधीजी और पंडित नेहरू
(पंडित जवाहरलाल नेहरू की लिखी किताब ‘ए बंच ऑफ ओल्ड लेटर्स’ से)


1) पहली मुलाकात : नेहरू सिर्फ 27 साल के थे
गांधीजी और जवाहरलाल नेहरू की पहली मुलाकात 1916 में क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान हुई थी। उस वक्त नेहरू 27 साल के थे और गांधीजी की उम्र 47 साल थी। नेहरू बहुत जल्द ही गांधीजी के प्रिय बन गए थे। वे अपना ज्यादातर समय गांधीजी और कांग्रेस को देते थे। इसे लेकर नेहरू के पिता (मोतीलाल नेहरू) को चिंता हुई। पिता की चिंता देख नेहरू ने गांधीजी को लिखा, "मुझे अपने पिताजी पर आर्थिक भार बनकर रहना दुखदायी मालूम होता है और इसलिए मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं।" जवाब में गांधीजी ने 15 सितंबर 1924 को नेहरू को लिखा, "दिल को छू लेने वाला तुम्हारा निजी पत्र मिला। मैं जानता हूं कि इन सब चीजों का तुम बहादुरी से सामना करोगे। अभी तो पिताजी चिढ़े हुए हैं और मैं बिल्कुल नहीं चाहता कि तुम या मैं, झुंझलाहट बढ़ाने का उन्हें जरा भी मौका दें। संभव हो तो उनसे जी खोलकर बातें कर लो और ऐसा कोई काम न करो, जिससे वे नाराज हों।" गांधीजी आगे लिखते हैं "क्या तुम्हारे लिए कुछ रुपए का बंदोबस्त करूं? तुम कुछ कमाई का काम हाथ में क्यों न ले लो? आखिर तो तुम्हें अपने ही पसीने की कमाई पर गुजर करनी होगी, भले ही तुम पिताजी के घर में रहो। कुछ समाचार-पत्रों के संवाददाता बनोगे? या अध्यापकी करोगे?"


2) गांधीजी का नेहरू के प्रति चिंता का भाव रहा
30 सितंबर 1925 को गांधीजी ने नेहरू को लिखा, "कांग्रेस की बात यह है कि उसे जितना सादा बना दिया जाए उतना अच्छा है, ताकि जो कार्यकर्ता अब रह गए हैं, वे उसे संभाल सकें। मैं जानता हूं, तुम्हारा बोझा अब बढ़ेगा। परंतु तुम्हें अपने स्वास्थ्य को किसी भी तरह खतरे में नहीं डालना चाहिए। मुझे तुम्हारी तंदुरुस्ती की चिंता है। तुम्हें बार-बार बुखार आना, मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। काश तुम खुद और कमला थोड़ी छुट्टी ले लो।’ जब मार्च 1930 में दांडी मार्च के कारण गांधीजी को गिरफ्तारी की आशंका थी, उन्होंने इसे लेकर भी नेहरू को चिट्ठी लिखी। इसके अलावा, नेहरू की पत्नी कमला नेहरू की तबीयत बहुत खराब रहती थी, तब भी गांधीजी समय-समय पर नेहरू को चिट्ठी लिखकर उनका हौसला बढ़ाते रहते थे। नेहरू भी चिट्ठी लिखकर गांधीजी को कमला के स्वास्थ्य की जानकारी देते रहते थे।

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3) जब मौका मिला, तब गांधी ने नेहरू को आगाह कर कहा- तेज जा रहे हो
नेहरू कई बार गांधीजी की इच्छा के खिलाफ जाकर भी काम करते थे, लेकिन इसके लिए गांधीजी ने उन्हें कभी कुछ बुरा-भला नहीं कहा। दिसंबर 1927 में मद्रास में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में नेहरू के कहने पर कुछ प्रस्ताव पास किए गए थे, जिनमें से कुछ गांधीजी को पसंद नहीं थे। इसके बाद 4 जनवरी 1928 को गांधीजी ने नेहरू को समझाते हुए लिखा, "तुम बहुत ही तेज जा रहे हो। तुम्हें सोचने और परिस्थिति के अनुकूल बनने को समय लेना चाहिए था। तुमने जो प्रस्ताव तैयार किए और पास कराए, उनमें से अधिकांश के लिए एक साल की देर की जा सकती थी। गणतंत्री सेना में तुम्हारा कूद पड़ना जल्दबाजी का कदम था। परंतु मुझे तुम्हारे इन कामों की इतनी परवाह नहीं, जितनी तुम्हारी शरारतियों और हुल्लड़बाजों को प्रोत्साहन देने की है। पता नहीं, तुम अब विशुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते हो या नहीं। परंतु तुमने अपने विचार बदल दिए हों तो भी तुम यह नहीं सोच सकते कि अनाधिकृत और अनियंत्रित हिंसा से देश का उद्धार होने वाला है।"


4) नेहरू को चुनौती भी दी- मुझसे खुलकर विचारों की लड़ाई लड़ो
17 जनवरी 1928 को गांधीजी ने नेहरू को फिर चिट्ठी लिखी। इसमें उन्होंने लिखा, "अगर मुझसे कोई स्वतंत्रता चाहिए तो मैं उस नम्रतापूर्ण अचूक वफादारी से तुम्हें पूरी स्वतंत्रता देता हूं, जो तुमसे मुझे इन तमाम वर्षों से मिली है और जिसकी मैं तुम्हारी हालत का ज्ञान प्राप्त हो जाने के कारण अब और भी कद्र करता हूं। मुझे बिल्कुल साफ दिखाई देता है कि तुम्हें मेरे और मेरे विचारों के विरुद्ध खुली लड़ाई करनी चाहिए। कारण, यदि मैं गलत हूं तो मैं स्पष्ट ही देश की वह हानि कर रहा हूं, जिसकी क्षति-पूर्ति नहीं हो सकती और उसे जान लेने के बाद तुम्हारा धर्म है कि मेरे खिलाफ बगावत में उठ खड़े हो, अथवा यदि तुम्हें अपने निर्णयों के ठीक होने में कोई शंका है तो मैं खुशी से तुम्हारे साथ निजी रूप में उनकी चर्चा करने को तैयार हूं। तुम्हारे और मेरे बीच मतभेद इतने विशाल और मौलिक हैं कि हमारे लिए कोई मिलन की जगह दिखाई नहीं देती। मैं तुमसे अपना यह दुख नहीं छिपा सकता कि मैं तुम्हारे जैसा बहादुर, वफादार, योग्य और ईमानदारी साथ खोऊं, परंतु कार्य की सिद्धि के लिए साथीपन को कुर्बान करना पड़ता है।"


5) आखिरी चिट्ठी में आशीर्वाद दिया
आजादी के बाद देश में सांप्रदायिक झगड़ों को शांत कराने के लिए गांधीजी उपवास (अनशन) पर थे। गांधीजी के उपवास की वजह से नेहरू ने भी एक-दो दिन तक कुछ खाया नहीं था। गांधीजी को जब इस बारे में पता चला तो उन्होंने नेहरू को 18 जनवरी 1948 को चिट्ठी लिखी, जिसमें नेहरू को उपवास खत्म करने की सलाह दी थी। यह गांधीजी की तरफ से नेहरू को लिखी आखिरी चिट्ठी थी। इसमें गांधीजी ने लिखा था- प्रिय जवाहरलाल, अनशन छोड़ो। साथ में पंजाब के गवर्नर के तार की प्रति भेज रहा हूं। बहुत वर्ष जियो। और हिंद के जवाहर बने रहो।


गांधीजी और माउण्टबेटन
(लैरी कॉलिन्स और डॉमिनिक लैपियर की लिखी "फ्रीडम एट मिडनाइट" और माउण्टबेटन के प्रेस अटैची एलन कैम्पबेल-जॉनसन की किताब "मिशन विद माउण्टबेटन" से)

1) गांधीजी का व्यक्तित्व ऐसा था कि पहली मुलाकात में माउण्टबेटन घबराए हुए थे
महात्मा गांधी और भारत के अंतिम वायसराय लुई माउण्टबेटन की उम्र में 30 साल का अंतर था। अप्रैल 1947 में दोनों के बीच पहली मुलाकात हुई थी। यह मुलाकात उस दौर में हुई थी, जब अंग्रेज भारत छोड़ने को राजी हो चुके थे और दो राष्ट्रों की अवधारणा जन्म ले चुकी थी। मुलाकात में चर्चा भी इसी अवधारणा पर होनी थी। माउण्टबेटन और गांधी, दोनों ही नहीं चाहते थे कि भारत के दो टुकड़े हों। विभाजन को रोकने का क्या उपाय हो सकता है, चर्चा इसी पर होना थी। यह भी मुद्दा था कि अगर विभाजन नहीं रूक पाया तो क्या? हालांकि, पहली मुलाकात में इस पर ज्यादा चर्चा न हो सकी। दरअसल, गांधीजी के व्यक्तित्व से माउण्टबेटन अच्छे से परिचित थे। वे इस मुलाकात को लेकर उत्सुक तो थे ही, साथ ही थोड़े घबराए हुए भी थे। घबराहट का कारण था कि गांधीजी से बातचीत की शुरुआत कैसे की जाए, बातचीत बोझिल न हो इसके लिए क्या-क्या किया जाए।


2) शुरुआती संवाद में ही माउण्टबेटन ‘गांधी दर्शन’ को जान गए
इन तमाम सवालों के बीच जब गांधी जी पहली बार माउण्टबेटन के सामने आए तो कुछ देर गांधी जी की चुप्पी देखकर वे चिंतित हो उठे, उन्हें लगा कि शायद उनसे कोई गलती तो नहीं हुई? उन्होंने नम्रता के साथ गांधी जी से पूछा कि आप परेशान लग रहे हैं? गांधी जी ने बताया, ''जानते हैं आज क्या हुआ? आज मेरी घड़ी चोरी हो गई। आपसे मिलने के लिए मैं बिहार से रवाना हुआ। तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठा। भीड़ बहुत थी। उसमें कब किसने घड़ी चुरा ली, पता ही नहीं चला।'' यह बताते हुए गांधी जी की आंखें नम हो गईं थी। माउण्टबेटन उन्हें टकटकी लगाकर देखते रहे और सुनते रहे। वे समझ गए थे कि गांधी जी का दुख यह नहीं है कि घड़ी की चोरी हो गई है। उनका दुख तो यह है कि लोगों ने अब तक उनकी बातों को नहीं समझा।


माउण्टबेटन को लगा कि भीड़ भरे डिब्बे में किसी शख्स ने गांधीजी की घड़ी क्या चुराई, जैसे उनके सिद्धांतों और विश्वासों का एक हिस्सा ही चुरा लिया। गांधीजी के इस जवाब ने उनके व्यक्तित्व का पूरा परिचय एक ही बार में माउण्टबेटन को दे दिया था, जिसे वे अब तक बस सुनते ही आ रहे थे। पहली ही मुलाकात के बाद माउण्टबेटन यह जान गए थे कि गांधीजी से उन्हें किसी प्रकार की सहायता पाने की आशा नहीं रखना चाहिए। वे यह भी समझ चुके थे कि गांधी जी सहायता दें या न दें, वाइसरॉय की तमाम मेहनत को वे धूल में जरूर मिला सकते हैं।

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3) जब माउण्टबेटन ने कहा- महात्मा गांधी की जगह वही होगी, जो ईसा या बुद्ध को मिली
माउण्टबेटन एक नौसैनिक थे, जिन्हें अपने कपड़ों पर एक छाेटा दाग भी बर्दाश्त नहीं था। रौब-रूतबे के प्रदर्शन का काफी शौक था। दूसरी ओर गांधीजी थे, जो खादी की धोती और शॉल के अलावा अन्य पोशाकों को फालतू समझते थे। वे अहिंसा के भक्त थे। दोनों को देखकर यह कहना मुश्किल ही था कि ये किसी एक मुद्दे पर कभी सहमत हो पाएंगे, लेकिन दोनों के बीच जो आपसी सद्भाव, स्नेह और प्रेम पहली मुलाकात के बाद पनपा, वह हर मुलाकात के साथ बढ़ता ही गया। गांधीजी की हत्या की खबर सुनकर माउण्टबेटन ने यह तक कह दिया था कि इतिहास बताएगा कि एक दिन महात्मा गांधी की जगह वही होगी, जो ईसा औरबुद्ध को मिली।


4) गांधीजी का मौन व्रत देखकर माउण्टबेटन बोले- थैंक गॉड
विभाजन रोकने की सारी कोशिशें जब असफल हो गईं और मई 1947 में दो राष्ट्रों का बनना लगभग तय हो गया, तब माउण्टबेटन इसी पसोपेश में थे कि अब गांधीजी का सामना कैसे किया जाए, क्योंकि गांधीजी किसी भी सूरत में देश का बंटवारा नहीं चाहते थे। अपनी मुलाकातों में वे माउण्टबेटन से भी कह चुके थे कि कांग्रेस की जगह अगर पूरा भारत मुस्लिम लीग को सौंपना पड़े तो सौंप दिया जाए, जिन्ना को देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, लेकिन देश का बंटवारा न हो। लेकिन माउण्टबेटन बंटवारा रोक नहीं पाए। अब जब चर्चिल और ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भी भारत के विभाजन पर मुहर लगा दी तो माउण्टबेटन महात्मा गांधी का सामना करने से डर रहे थे। यह तो डर था ही कि गांधीजी क्या कहेंगे? साथ ही उन्हें यह आशंका भी थी कि गांधीजी अगर विभाजन के खिलाफ खड़े हो गए तो उनकी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी।


माउण्टबेटन जानते थे कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के समर्थन के बावजूद वे गांधीजी से टक्कर नहीं ले सकते। आखिरकर जून की दूसरी तारीख को वे गांधीजी से मिले। गांधीजी के साथ बैठक से पहले उनका दिल धड़क रहा था। डर लग रहा था कि पता नहीं गांधी जी अब क्या कहेंगे। इसी डर के बीच गांधीजी माउण्टबेटन के घर पहुंचे। आशंकाओं के बीच मुस्कुराते हुए वे स्वागत के लिए खड़े हुए और फिर अचानक रूक गए। गांधी जी ने उन्हें देखकर अपने होठों पर एक उंगली रख ली थी। गांधीजी की यह मुद्रा देखकर माउण्टबेटन को कुछ राहत मिली। दरअसल, वह सोमवार का दिन था और गांधीजी हर सोमवार मौन व्रत रखते थे। जैसे ही माउण्टबेटन यह समझे, उन्होंने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि गांधीजी की जिस प्रतिक्रिया का डर उन्हें अभी लग रहा था, वह कम से कम आज तो उन्हें नहीं मिलेगी। अब माउण्टबेटन ने देश के विभाजन की पूरी योजना गांधीजी के सामने रखी, इसके जवाब में गांधीजी ने पैंसिल से पांच पुराने लिफाफों पर अपनी प्रतिक्रिया लिखकर माउण्टबेटन को सौंप दी और चले गए। माउण्टबेटन ने इन लिफाफों को हमेशा के लिए अपने पास रखे रखा।


5) माउण्टबेटन से कहा- सादे मकान में रहो, वाइसराय हाउस को अस्पताल बना दो
नेहरू ने माउण्टबेटन को आजाद भारत का प्रथम गर्वनर जनरल बनने का प्रस्ताव दिया था। गांधीजी भी यह चाहते थे कि माउण्टबेटन इस पद पर आसीन हों। जब इसे लेकर गांधीजी और माउण्टबेटन की मुलाकात हुई तो गांधीजी ने कुछ ऐसा कहा जिससे माउण्टबेटन सकते में आ गए। गांधीजीवायसराय के निवास स्थान और महान मुगल गार्डन की ओर इशारा करते हुए बोले, ''स्वतंत्र भारत के वायसराय को यह सब नहीं मिलेगा। यह सारा रौब-दाब चला जाएगा।'' गांधीजी का यह मानना था कि भारत के गरीब देश होने के कारण यहां के नेता का जीवन सादगीभरा होना चाहिए। वायसराय को भी सादगी का उदाहरण देना होगा। गांधीजी ने वायसराय से कहा, "इस आलीशान हवेली से बाहर आइए। मामूली मकान में रहिए, जहां कोई नौकर-चाकर न हो और क्यों न इस हवेली को अस्पताल में बदल दिया जाए?" माउण्टबेटन यह सुनकर सन्न रह गए। माउण्टबेटन जो हमेशा रौब-रूतबे और ग्लैमर के साथ जीने वाले इंसान थे, उनके सामने गांधीजी ने भारत का प्रथम समाजवादी नेता बनने का प्रस्ताव रख दिया था।

गांधीजी और सरदार पटेल
(लैरी कॉलिन्स और डॉमिनिक लैपियर की किताब "फ्रीडम एट मिडनाइट" से)


1) जिन्ना के साथ गांधीजी के बयान का पटेल ने विरोध किया
कांग्रेस के दूसरे दिग्गज गांधीजी के निर्देश कभी नहीं टालते थे। हालांकि, सरदार वल्लभ भाई पटेल हमेशा स्पष्ट बात करने के लिए पहचाने जाते थे। भारत के विभाजन के मुद्दे पर भी पटेल ने गांधीजी के रुख से असहमति जताई थी। खासतौर पर पाकिस्तान की मांग को जन्म देने वाले जिन्ना के साथ अखबारों में संयुक्त बयान छपवाने की उन्होंने कड़ी आलोचना की थी। पटेल ने गांधीजी को चिठ्ठी लिखकर अपनी नाखुशी भी जता दी थी। 21 अप्रैल 1947 की लिखी चिट्ठी कुछ इस तरह थी...


आदरणीय बापू,
बारदोली में आपका पत्र मिला। मैं पांच दिन के लिए बंबई और गुजरात गया हुआ था। बारदोली में किशोरलालभाई स्वामी, नरहरिभाई और दूसरे लोग भी थे। उत्तर पश्चिम फ्रंटीयर क्षेत्र में हिंदुओं और सिखों का बेरहमी से कत्ल किया जा रहा है। कलकत्ता में हिंदुओं की हालत और भी खराब होती जा रही है। आपके और जिन्ना के नाम से अखबार में छपी अपील मुझे अच्छी नहीं लगी। यह आपकी समझ के बिलकुल विपरीत है; लेकिन अब क्या किया जा सकता है? मैं तो वहां था ही नहीं। कश्मीर के बारे में मैं कोशिश कर रहा हूं। कोई अच्छा परिणाम निकला, तो आपको सूचित करूंगा।
- वल्लभभाई का प्रणाम


2) नीतिगत मुद्दों पर गांधीजी के फैसले को अंतिम मानते थे सरदार पटेल
इस चिठ्ठी के बाद जब गांधीजी और सरदार पटेल की मुलाकात हुई, तो गांधीजी ने उनका पक्ष पूछा। पटेल ने चिठ्ठी में लिखी बातें दोहरा दीं। गांधीजी ने जिन्ना के साथ बयान जारी करने को अपना फैसला करार दिया। गांधीजी के मुताबिक, भारत और पाकिस्तान में जारी हिंसा थामने के लिए ऐसा करना जरूरी था। गांधी के ऐसा कहने पर सरदार पटेल ने इसे उनका आदेश मानकर स्वीकार कर लिया, जबकि पटेल जानते थे कि जिन्ना और गांधी का संयुक्त बयान अंग्रेज अधिकारियों ने जारी कराया था। इस तरह विभाजन से जुड़े कई मुद्दोें पर गांधीजी से तीखे मतभेद होने के बाद भी सरदार पटेल ने उनका आदेश स्वीकार कर लिया। इसकी वजह ये थी कि सरदार पटेल मानते थे कि हर नीतिगत मुद्दे पर गांधीजी का फैसला ही अंतिम होगा। उस फैसले पर अमल करना हर कांग्रेस कार्यकर्ता का कर्तव्य होगा।

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3) मतभेद का सबसे बड़ा मुद्दा था- पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए की रकम
गांधीजी ने 13 जनवरी, 1948 को अनशन शुरू किया। इस दिन मंगलवार था और अनशन सुबह 11:55 बजे से शुरू हुआ था। उस समय गांधीजी के अनशन के केंद्र में दो बातें थीं- पहला मुद्दा शरणार्थियों को लेकर था। गांधीजी चाहते थे कि जिन मुस्लिम नागरिकों के खाली पड़े घरों में शरणार्थियों ने कब्जा कर लिया था, उन्हें छोड़कर वे कैम्पों में लौट जाएं। दूसरा मुद्दा पाकिस्तान को कर के तौर पर 55 करोड़ रुपए चुकाने का था। सरदार पटेल ने पहले मुद्दे पर तो गांधीजी के प्रस्ताव पर सहमति दे दी थी, लेकिन पाकिस्तान को किसी तरह की राहत देने पर उन्होंने खुलकर ऐतराज जताया।


गांधीजी अनशन की शुरुआत के समय ही अस्वस्थ थे। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने के मुद्दे पर पटेल के विरोध से गांधीजी काफी असहज हो गए। इस बीच गांधीजी की तबीयत और बिगड़ गई। गांधीजी अब उठकर बात करने की स्थिति में भी नहीं थे। अनशन के दौरान वे लेटे हुए छत की तरफ देख रहे थे। इसी बीच अचानक उन्होंने सरदार पटेल को धीमी आवाज में पुकारा। कोहनियों का सहारा लेकर वे उठे और बोले-"तुम वह सरदार नहीं हो, जिसे मैं किसी युग में जानता था।" सरदार पटेल भले ही हालात को देखकर गांधीजी से विरोध जता रहे थे, लेकिन आखिरकार उन्होंने गांधीजी के आदेश को मानते हुए हां भर दी। सरदार पटेल गांधीजी से कई मुद्दों पर अलग राय रखने के बाद भी उनका सबसे ज्यादा सम्मान करते थे।

गांधीजी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस
(गांधी सेवाग्राम आश्रम के पास मौजूद चिट्ठियों और एसएस नागौरी और कांता नागौरी की किताब ‘भारत का राष्ट्रीय आंदोलन और संवैधानिक विकास’ से)


1927 में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने ‘पूर्ण स्वराज' का नारा दिया था, तो पहली बार कांग्रेस से मतभेद की बात सामने आई थी। दरअसल गांधीजी की अगुआई में अब तक कांग्रेस होम रूल की बात पर ही जोर दे रही थी। लिहाजा, नेताजी के गरम दल और कांग्रेस के बाकी नरम दल के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। इसके बाद 1929 में जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। लेकिन दिलचस्प रूप से 1942 में असहयोग आंदोलन के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस के पूर्ण स्वराज के नारे पर ही कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई लड़ी। गांधी सेवाश्रम के पास नेताजी सुभाषचंद्र बोस और गांधीजी के बीच हुए पत्र व्यवहार का रिकॉर्ड मौजूद है। इस रिकॉर्ड के मुताबिक, सुभाषचंद्र बोस ने 31 मार्च, 1939 को जीलोगोरा से गांधीजी को चिठ्ठी लिखी थी। नेताजी उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इस पत्र में नेताजी ने अंतरराष्ट्रीय स्थितियों का हवाला देते हुए पूर्ण स्वराज के लिए लड़ाई शुरू करने पर जोर दिया था।


1) बोस कांग्रेस अध्यक्ष थे, लेकिन हर फैसले के लिए गांधीजी को ही अधिकृत किया
बोस ने लिखा कि अगर गांधीजी अनुमति दें, तो आजादी के लिए संघर्ष तुरंत शुरू किया जा सकता है। अगर गांधीजी कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की अगुआई में ऐसा करना चाहते हों, तो बोस उसके लिए भी तैयार हैं। इतना ही नहीं, बोस ने आगे लिखा कि अगर उनके कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहने से गांधीजी खुश नहीं हों, तो वे तुरंत पद छोड़ने को तत्पर हैं। बोस ने कांग्रेस का चुना हुआ अध्यक्ष होने के बावजूद, हर फैसले के लिए गांधीजी को अधिकृत किया था। गांधीजी भले ही कांग्रेस में किसी पद पर काबिज नहीं थे, लेकिन इसके बावजूद नेताजी ने उन्हें हर फैसले के लिए अधिकृत बताया था।

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2) गांधीजी ने नेताजी से खुलकर असहमति जताई थी
गांधीजी ने 2 अप्रैल 1939 को इस चिठ्ठी का जवाब देते हुए लिखा था कि वे नेताजी के विचारों से पूरी तरह असहमति जताते हैं। नई दिल्ली के बिड़ला हाउस से लिखे इस पत्र में गांधीजी ने कहा- "मैं तुम्हारे उस विचार से असहमति जताता हूं, जिसमें तुमने लिखा है कि देश आज से ज्यादा अहिंसक पहले कभी दिखाई नहीं दिया। मुझे सांस लेते हुए हिंसा की गंध आती है। हिंदू और मुसलमानों के बीच गहराती हुई खाई इस तरफ इशारा करती है।" उन्होंने आगे लिखा- "भले ही हमने तीखे मतभेदों पर विचार किया हो, लेकिन मुझे विश्वास है कि हमारे निजी रिश्ते पर इससे असर नहीं पड़ेगा। अगर हमारे रिश्तों में दिला का जुड़ाव है, तो वह रहेगा। हमारा रिश्ता मतभेदों से प्रभावित नहीं हो सकता।"



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