Wednesday, October 2, 2019

पूज्य गांधीजी सामाजिक समता और समरसता के आदर्श पक्षधर थे: संघ प्रमुख माेहन भागवत

पूज्य गांधीजी सामाजिक समता और समरसता के आदर्श पक्षधर थे: संघ प्रमुख माेहन भागवत

डॉ. मोहन भागवत (सर संघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ).भारत देश के आधुनिक इतिहास और स्वतंत्र भारत के उत्थान की गाथा में जिन विभूतियों के नाम सदा के लिए अंकित हो गए हैं, जो सनातन काल से चलती आई भारत की इतिहास गाथा के एक पर्व बन जाएंंगे, पूज्य महात्मा गांधी का नाम उनमें प्रमुख है। भारत आध्यात्मिक देश है और आध्यात्मिक आधार पर ही उसका उत्थान होगा, इसे आधार बना कर भारतीय राजनीति को आध्यात्मिक नींव पर खड़ा करने का प्रयोग महात्मा गांधी ने किया।


गांधीजी के प्रयास केवल सत्ता की राजनीति तक सीमित नहीं थे। समाज और उसके नेतृत्व का सात्विक आचरण उत्पन्न करने पर उनका अधिक जोर रहता था। महत्वाकांक्षा और स्वार्थ से प्रेरित होकर, अहंकार और विकारों के आधार पर चलने वाली देशान्तर्गत और वैश्विक राजनीति को उन्होंने पूरी तरह से अमान्य कर दिया था। सत्य, अहिंसा, स्वावलंबन और मनुष्यमात्र की सच्ची स्वतंत्रता पर आधारित भारत का जनजीवन हो, देश और मानवता के लिए यही उनका सपना था। गांधीजी का यह चिंतन उनके अपने जीवन में पूर्णतः साकार होता था।


1922 में गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद नागपुर शहर कांग्रेस ने एक जनसभा का आयोजन किया। वक्ता के रूप में उस सभा में डॉ. हेडगेवार ने ‘पुण्य पुरुष’ विशेषण से संबोधित करते हुए कहा कि गांधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। जीवन में अपने धैर्य और विचारों के लिए सर्वस्व त्याग करने की उनकी सम्पूर्ण तैयारी है। उन्होंने कहा कि केवल गांधीजी का गुणवर्णन करने से गांधीजी का कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। गांधीजी के इन गुणों का अनुकरण कर अपने जीवन में चलेंगे तो वही गांधीजी के कार्य को आगे बढ़ाने वाला होगा।


पराधीनता के कारण तैयार होने वाली गुलामी की मानसिकता कितनी हानिकर होती है इसको गांधीजी जानते थे। उस मानसिकता से मुक्त, शुद्ध स्वदेशी दृष्टि से भारत के विकास और आचरण का एक स्वप्नचित्र उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ के रूप में लिखा है। उस समय की दुनिया में सबकी आंखों को चकाचौंध कर देने वाली भौतिकता को लेकर विजयी पाश्चात्य जगत, संपूर्ण दुनिया में अपनी ही पद्धति और शैली को, सत्ता के बल पर शिक्षा को विकृत करते हुए और आर्थिक दृष्टि से सबको अपना आश्रित बनाने की चेष्टा करते हुए आगे बढ़ रहा था। ऐसे समय में गांधीजी द्वारा हुआ यह प्रयास स्वत्व के आधार पर जीवन के सभी पहलुओं में एक नया विचार देने का बहुत ही सफल प्रयोग था। किन्तु गुलामी की मानसिकता वाले लोग बिना देखे-सोचे पश्चिम से आई बातों को ही प्रमाण मान कर अपने पूर्वज, पूर्व गौरव और पूर्व संस्कारों को हीन और हेय मानकर अंधानुकरण और चाटुकारिता में लग गए थे। उसका बहुत बड़ा प्रभाव आज भी भारत की दिशा और दशा पर दिखाई देता है।


अन्य देशों के समकालीन महापुरुषों ने भी गांधीजी के भारत केन्द्रित चिंतन से कुछ अंशों को ग्रहण करते हुए अपने-अपने देश की विचार संपदा में योगदान किया। आइंस्टीन ने तो गांधीजी के निधन पर कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना भी कठिन होगा कि ऐसा कोई व्यक्ति इस भूतल पर जीवन बिता कर चला गया। इतना पवित्र आचरण और विचार गांधीजी ने अपने जीवन के उदाहरण से हमारे सामने रखा है।


गांधीजी 1936 में वर्धा के पास लगे संघ शिविर में भी पधारे थे। अगले दिन डॉ. हेडगेवार की भेंट उनसे गांधीजी के निवास स्थान पर हुई। गांधीजी से उनकी चर्चा और प्रश्नोत्तर हुए जो अब प्रकाशित हैं। विभाजन के रक्तरंजित दिनों में दिल्ली में उनके निवास स्थान के पास लगने वाली शाखा में गांधीजी का आना हुआ था। उनका बौद्धिक वर्ग भी संघ शाखा पर हुआ था। उसका वृत्त 27 सितंबर 1947 के ‘हरिजन’ में छपा है। संघ के स्वयंसेवकों का अनुशासन और जाति-पांति की विभेदकारी संवेदना का उनमें संपूर्ण अभाव देख कर गांधीजी ने खुशी व्यक्त की। ‘स्व’ के आधार पर भारत की पुनर्रचना का स्वप्न देखने वाले, सामाजिक समता और समरसता के संपूर्ण पक्षधर, अपनी कथनी का स्वयं के आचरण से उदाहरण देने वाले, सभी लोगों के लिए आदर्श पूज्य गांधीजी को हम सबको देखना, समझना और अपने आचरण में उतारना चाहिए। उनके इन्हीं सदगुणों के कारण गांधीजी के विचारों से किंचित मतभेद रखने वाले व्यक्ति भी उनको श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे।


उनके जन्म के 150वें वर्ष में उनका स्मरण करते हुए हम सबका यह संकल्प होना चाहिए कि उनके पवित्र, त्यागमय, पारदर्शी जीवन और स्व आधारित जीवनदृष्टि का अनुसरण करते हुए हम लोग भी विश्वगुरु भारत की रचना के लिए अपने जीवन में समर्पण और त्याग की गुणवत्ता लाएं।

संघ में प्रतिदिन सुबह प्रार्थना में गांधीजी का नाम लेते हैं
संघ में रोज प्रातःकाल एक स्तोत्र के द्वारा महापुरुषों की परंपरा का स्मरण करने की प्रथा संघ के स्थापना काल से ही है। 1963 में इसमें कुछ नए नाम जोड़े गए। इस समय तक पूज्य गांधी जी दिवंगत हो चुके थे। उनका नाम भी इसमें जुड़ा। वर्तमान में इसे ‘एकात्मता स्तोत्र’ कहते हैं। संघ के स्वयंसेवक प्रतिदिन प्रातःकाल एकात्मता स्तोत्र में गांधीजी के नाम का उच्चारण करते हुए उपरोक्त गुणों से युक्त उनके जीवन का स्मरण करते हैं।



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October 02, 2019 at 05:58AM

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