Sunday, October 27, 2019

300 ईसा पूर्व कौमुदी महोत्सव पर दीपदान होता था, 2000 साल बाद यह आज जैसे स्वरूप में पहुंचा

300 ईसा पूर्व कौमुदी महोत्सव पर दीपदान होता था, 2000 साल बाद यह आज जैसे स्वरूप में पहुंचा
300 ईसा पूर्व कौमुदी महोत्सव पर दीपदान होता था, 2000 साल बाद यह आज जैसे स्वरूप में पहुंचा
300 ईसा पूर्व कौमुदी महोत्सव पर दीपदान होता था, 2000 साल बाद यह आज जैसे स्वरूप में पहुंचा
300 ईसा पूर्व कौमुदी महोत्सव पर दीपदान होता था, 2000 साल बाद यह आज जैसे स्वरूप में पहुंचा

नई दिल्ली. भगवान राम के अयोध्या लौटने से लेकर भगवान कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करने और भगवान विष्णु द्वारा देवी लक्ष्मी को बलि की कैद से मुक्त कराने जैसी कई धार्मिक मान्यताएं दिवाली की शुरुआत का कारण मानी जाती हैं। कई सामाजिक मान्यताएं भी हैं, जो इसे एक कृषक समुदाय के त्योहार के रूप में स्थापित करती हैं। इन सभी मान्यताओं के बीच भारतीय उपमहाद्वीप में इस उत्सव को मनाए जाने का उल्लेख पिछले 2500 सालों की कई रचनाओं में आया है। अलग-अलग ग्रंथों, पुराणों, उपन्यासों, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृत्तान्तों और धार्मिक स्कॉलरों की रचनाओं में दिवाली उत्सव का जिक्र है। दैनिक भास्कर APP ने पूना के भंडारकर शोध संस्थान के अध्यक्ष रहे डॉ. पीके गोडे की किताब ‘स्टडीज इन इंडियन कल्चर स्टडीज’, कलानाथ शास्त्री की किताब ‘भारतीय संस्कृति : आधार और परिवेश’ और एसी मुखर्जी की किताब ‘हिंदू फास्ट एंड फिस्ट’ में 1500 ईसवी से पहले की रचनाओं के हवाले से दिए गए संदर्भों के आधार पर प्राचीन काल में इस उत्सव को मनाए जाने के तरीकों को जाना।


दिवाली का आज जो स्वरूप है, वह पिछले 2 से 3 हजार सालों की कई परम्पराओं के एक साथ समन्वित हो जाने से 500 साल पहले हुआ। ईसा पूर्व में जहां इस उत्सव पर केवल दीपक जलाकर उजाला करने की परंपरा का उल्लेख मिलता है, तो 500 ईस्वी तक इसमें नाच-गाने समेत कई सामाजिक गतिविधियां जुड़ गईं थी। घरों की सजावट, दोस्तों-रिश्तेदारों को उपहार भेंट करना, नए कपड़े पहनने जैसी परंपराएं भी 1000 ईसवी तक इस उत्सव में शामिल हो गईं। 1000 ईसवी के बाद इस उत्सव में लक्ष्मी पूजा व 14वीं सदी में पटाखे जलाने का उल्लेख प्राचीन रचनाओं में मिलता है।


1000 से 600 ईसा पूर्व : ऊंचे बांस पर दीपक जलाए जाते थे
दीपक जलाने का सबसे पुराना उल्लेख उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसा पूर्व) में मिलता है। शरदकाल (वर्तमान में दिवाली का समय) में दीपक को किसी ऊंचे बांस पर टांग दिया जाता था। शास्त्रों में यह विधान बहुत पुराना है। इसके अनुसार श्राद्ध पक्ष के बाद जब पूर्वज अपने लोकों की ओर लौटते हैं तो उन्हें मार्ग दिखाने के लिए दीपकों को बहुत ऊंचाई पर टांगा जाता था। इन्हें आकाशदीप कहा जाता था।


400 से 200 ईसा पूर्व : कौमुदी महोत्सव में दीपदान का उल्लेख
चाणक्य और चंद्रगुप्त के समय पाटलिपुत्र में कौमुदी महोत्सव मनाया जाता था। विद्वानों के अनुसार, यह उत्सव शरद पूर्णिमा को मनाया जाता था। जो कार्तिक अमावस्या (दीपावली) से 15 दिन पहले होती है। इस महोत्सव में जलाशयों पर और नावों में दीपक जलाए जाते थे। 2000 साल पहले लिखे गए ‘सप्तशती’ में भी महिलाओं द्वारा स्थान-स्थान पर दीपक रखकर उत्सव मनाने का वर्णन है।


100 से 500 ईसवी: कार्तिक अमावस्या के दिन नाच-गाने और जुआ खेलने का उल्लेख
50 से 400 ईस्वी के बीच कार्तिक अमावस्या को यक्षरात्रि के नाम से एक सामाजिक उत्सव मनाने की परंपरा थी। इसका उल्लेख सबसे पहले वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में मिलता है। इस उत्सव में नाच-गाने के साथ-साथ कुछ सामाजिक गतिविधियां होती थीं। स्कॉलर टीएन रे ने भी अपने एक रिसर्च आर्टिकल ‘द इंडोर एंड आउटडोर गेम्स ऑफ इंडिया’ में यक्षरात्रि पर्व के बारे में बताया है। इनके मुताबिक, आज जिस दिन दिवाली मनाई जाती है, ठीक उसी दिन 500 ईस्वी के आसपास यक्षरात्रिमनाई जाती थी। इसमें सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ लोग जुआ भी खलते थे।


600-1000 ईसवी: घरों की सजावट और कपड़े भेंट करने की परंपरा का जिक्र

  • 606 से 648 ईस्वी के बीच लिखे गए नागानंद नाटक में दीप प्रतिपदोत्सव का उल्लेख है। इस उत्सव में नवविवाहितों को उनकी पहली दिवाली पर कपड़े भेंट करने की परंपरा का जिक्र है। यह नाटक कन्नौज के राजा हर्षवर्धनने लिखा था।
  • 500 से 800 ईसवीके बीच लिखे गए नीलमत पुराण में यक्षरात्रि की ही तरह ही सुखसुप्तिका का उल्लेख है। इस दिन हर जगह दीपों के जरिए उजाला करने, परिवार और रिश्तेदारों के साथ भोजन करने, नाचने, गाने और जुआ खेलने, नए कपड़े और गहने पहनने, दोस्तों, रिश्तेदारों को नए कपड़े भेंट करने की परंपरा थी। इसी दौर में लिखे गए आदित्य पुराण में भी सुखसुप्तिका का उल्लेख है।
  • 959 ईस्वी के आसपास मालखेड़ के राष्ट्रकूट राजा कृष्ण-तृतीय के समय सोमदेवसूरि द्वारा लिखे गए ‘यशस्तिलक चंपू’ में दीपोत्सव से पहले घरों की लिपाई-पुताई और सजावट करने का उल्लेख है। घरों की सबसे ऊंचाई वाले स्थानों पर उजाला करने के साथ-साथ इस दिन नाच-गाने और जुआ खेलने का वर्णन है। इस दिन शादियां होने का भी उल्लेख है।


1000-1200 ईसवी: पहली बार विदेशी यात्रियों ने दिवाली का जिक्र किया

  • 1030 ईस्वी में अरब यात्री अलबरूनी ने ‘तहकीक-अल-हिंद’ में दिवाली शब्द का जिक्र करते हुए लिखा है, ‘इस दिन भारत में लोग नए कपड़े पहनते हैं, पान के पत्ते और सुपारी के साथ उपहार देते हैं, मंदिरों के दर्शन करते हैं, गरीबों को दान देते हैं और घर के हर कोने में रोशनी करते हैं।’ अलबरूनी ने इस दिन को वासुदेव की पत्नी लक्ष्मी और बाली की मुक्ति का दिन भी बताया है। उन्होंने इस दिन शादियों का भी जिक्र किया है।
  • 1100-1200 ईसवीमें मुल्तान के अब्दुल रहमान ने ‘संदेश रासक’ में महिलाओं द्वारा घरों में दीपक जलाने और इनसे निकले काजल को आंखों में लगाने का जिक्र किया है।
  • 1100 ईस्वी में ही आचार्य हेमचंद्र ने अपनी किताब ‘देशी नाममाला’ में प्राचीन भारत में मनाए जाने वाले जक्खरत्ती पर्व का उल्लेख किया है, जो यक्षरात्रि की तरह ही प्रतीत होता है।
  • 1119 ईस्वी में चालुक्य वंश के समय के कन्नड़ शिलालेख में इस दिन एक राजा के द्वारा नीलेश्वर देव को उपहार भेंट करने का वर्णन है।


1200-1400 ईसवी: यमद्वितीया के दिन बहन के घर भाई के भोजन करने का उल्लेख

  • 1220 ईसवीमें महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर ने अपनी तीन अलग-अलग रचनाओं में दीपावली का उल्लेख किया है। उन्होंने इस दिन दीपकों के जरिए हुए उजाले की तुलना आत्मीय ज्ञान से की है।
  • 1250 ईस्वी में महानुभाव पंत की मराठी रचना ‘लीलाचरित्र’ में गणेश जी को आराध्य देव मानने वाले गोसावी समुदाय के लोगों के स्नान का जिक्र है। इसके लिए बड़ी मात्रा में पानी इकट्ठा किया जाता था। नहाने से पहले तेल मालिश की जाती थी। किताब में कार्तिक अमावस्या के दो दिन बाद यम द्वितीया (भाई दूज) का भी जिक्र है। इसमें लिखा गया है कि यम द्वितीया के दिन खाने के लिए मिठाईंयां और लड्डू की व्यवस्था की जाती थी। बहनें अपने भाई की आरती उतारकर उन्हें मिठाईंया खिलाती थीं।
  • 1260 ईस्वी में प्रशासक और कवि रहे हिमाद्री पंत ने अपने व्रतखण्ड ‘चतुर्वर्ग चिन्तामणि’ में यम और उनकी बहन यमुना के एक किस्से का उल्लेख किया है। ‘भविष्योत्तर पुराण’ से लिए कुछ पंक्तियों के जरिए उन्होंने बताया कि यमद्वितीया के दिन यम ने यमुना के घर भोजन किया था। हो सकता है तभी से यह दिन भाई-बहन के त्योहार भाईदूज के रूप में मनाया जाने लगा हो।
  • 1305 ईस्वी में गुजरात के जैन स्कॉलर मेरुतुंग ने अपनी रचना ‘प्रबंध चिंतामणि’ में दिवाली की रात कोल्हापुर के राजा की पत्नियों द्वारा महालक्ष्मी की पूजा का उल्लेख किया है। इसी काल में गुजरात के राजा रहे सिद्दाराजा द्वारा लक्ष्मी जी को सोने के गहनें, जादुई कपड़ें और कपूर चढ़ावाने का उल्लेख भी मिलता है।


1400-1500 ईसवी: पहली बार पटाखों का जिक्र

  • विजयनगर साम्राज्य (दक्षिण भारत) के सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सिद्धांतों को बताते ग्रंथ ‘आकाशभैरवकल्प’ में एक राजा द्वारा नरकचतुर्दशी और कार्तिकशुक्ल प्रतिपदा को दिवाली कैसे मनानी चाहिए वह लिखा है। इसके अनुसार, यह त्योहार राजा को खुशियां, विजय और संतान देने वाला होता है। इस दिन सुबह जल्दी उठकर नहाना, ब्राह्मणों की पूजा करना चाहिए। राजा की पत्नियों को तेल मालिश के बाद गर्म पानी से स्नान करना चाहिए। राजा को तीन दीपक जलाकर अपने आराध्य देव की पूजा करना चाहिए। इसके बाद अपने राज सिंहासन पर बैठकर अपने दरबार में उपस्थित कवि, ब्राह्मण, कलाकारों और ज्योतिष वैज्ञानिकों को कपड़ों के रूप में तोहफे भेंट करने चाहिए। राजा को इसके बाद अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ भोजन करना चाहिए। नाटकों के मंचन के बाद बाणविद्या (आतिशबाजी) देखना चाहिए।’
  • 1420 ईस्वी में इटली के यात्री निकोलोई कोंटी ने विजयनगर साम्राज्य की यात्रा की थी। उन्होंने अपने यात्रा वृतान्त में दिवाली के बारे में लिखा है कि इस दिन घरों की छतों पर दिन-रात दिए जलाए जाते थे।


1500 ईसवीके बाद : मुगलकाल की पेंटिग्स में दीपावली का जश्न
1500 ईसवीके बाद दिवाली को आज के स्वरूप की तरह ही मनाया जाने लगा था। मुगल शासक अकबर के समय इसे जश्न-ए-चिरागा के नाम से मनाया जाता था। मुगल काल की कई पेंटिग्स में दीपावली का जश्न दर्शाया गया है। 17वीं सदी में कई मशहूर विदेशी यात्रियों और स्कॉलरों ने भी अपनी किताबों में भारत में दिवाली मनाए जाने का उल्लेख किया। सन 1613 में पुर्तगाली लेखक गोडिन्हो डी ऐरेडिया, 1623 में पी डेला वेले, 1651 में ए रोगेरियस, 1671 में आयरिश व्यापारी विलियम हेजेस ने अपने लेखों में दिवाली का जिक्र किया। 15 वीं सदी के बाद के सभी धर्म ग्रंथों में दिवाली का वर्णन ठीक उसी प्रकार का मिलता है, जैसे आज मनाया जाता है। यानी दीपोत्सव, लक्ष्मी पूजा, लिपाई पुताई सभी का विधान मिलता है।


प्राचीन पुराणों में अमावस्या को लक्ष्मी पूजा निषेध थी
प्राचीन पुराणों में लक्ष्मी पूजन के व्रत पोष, चैत्र और भाद्रपद में बताए गए हैं। स्कंद पुराण में लिखा है कि लक्ष्मी का पूजन पूर्णिमा को करना चाहिए। कृष्ण पक्ष और रात्रि में पूजा की मनाही थी। यानी पहले लक्ष्मी की पूजा अमावस्या को नहीं की जाती थी। लेकिन बाद की पुराणों (500 ईस्वी के बाद लिखी गई नीलमत पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण आदि) में कार्तिक की अमावस्या को लक्ष्मी पूजन का विधान कर दिया गया था। भविष्य पुराण में यह उत्सव व्यापारियों के उत्सव के रूप में बताया गया है और बाजारों में रोशनी करने, शाम को लक्ष्मी पूजा करने और खुशियां मनाने का विधान किया गया है। भविष्य पुराण में तीन प्रकार की स्वच्छता पर जोर दिया गया है। नरक चतुर्दशी के दिन स्नान का विधान है। घरों, सार्वजनिक स्थानों और देवालयों की सफाई और लिपाई-पुताई का विधान है। इन जगहों पर व खासकर वाणिज्यिक केन्द्रों पर दीपकों के माध्यम से उजाला करने को एक धार्मिक कर्तव्य बताया गया है।

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